आज के इस युग में अधिकांश लोग यह मानते हैं कि देव गति में सुख ही सुख होते हैं और अधिकांश लोग देव गति प्राप्त करने की चेष्टा करते है। लेकिन बात इतनी सीधी नहीं होती है. यह सच है कि देवगति में यद्यपि शारीरिकि कष्ट नही रहते हैं, किन्तु मानसिक कष्ट बहुत-बहुत ज्यादा होते हैं। देवों में छोटी-बड़ी बहुत सी पदवियां होती हैं, विभूतियां होती हैं और उनकी सम्पदा और सुख की सामग्री भी सम्यकद्रष्टि देवों से बहुत ही ज्यादा कम होती हैं.
देवों के निम्नलिखित दस जाति, वर्ग या पदवी या दरजे होते है –
- राजा के समान इन्द्र-देव
- पिता, गुरु या उपाध्याय के समान सामानिक-देव
- मंत्री, पुरोहित के समान त्रायस्त्रिंश-देव
- सभा सदस्य, सभासद, मित्र और परिजन के समान पारिषद-देव
- इन्द्र के पीछे अंगरक्षक के सामान खड़े होने वाले आत्मरक्ष-देव
- कोतवाल के समान लोकपाल-देव
- सात प्रकार की सेना बनने वाले अनीक-देव
- नगरवासी या प्रजा के समान प्रकीर्णक-देव
- हाथी, घोड़ा आदि वाहन बनने वाले आभियोग्य-देव
- कांतिहीन क्षुद्र या निम्न श्रेणी के चाण्डाल आदि के समान किलिवष्क-देव
हमारे समान ही इन दस जातियो के देवों में भी अनेक भेद-प्रभेद होते हैं. कई नीची जाति या पदवी वाले देव उच्च जाति के सम्यकद्रष्टि देवों के वैभवों को देखकर अपने मन में बड़ा र्इर्षाभाव रखते हैं और जलते रहते हैं।
इन सभी देवों को भोग-सामग्री तो बहुत सी होती है, किन्तु एक समय एक ही इन्द्रिय द्वारा भोग हो सकता है। लेकिन उनकी इच्छा यह होती है कि पाँचों इन्द्रियो के सभी वैभवों को हर समय एक साथ भोगूँ, लेकिन इस तरह से सभी वस्तुओं को एक साथ भोगने की शक्ति न होने पर दुःख और आकुलता होती रहती है.
जैसे किसी के सामने पचास प्रकार की मिठार्इ परोसी जावे, तब वह बार-बार घबड़ाता है कि किसे खाऊँ, किसे न खाऊँ, साथ ही वह यह चाहता है कि मैं सबको एक साथ भोगूँ। ऐसी शक्ति न होने पर वह दु:खी होता रहता है।
इस तरह देवलोक के सभी मिथ्याद्रष्टि देव मन में अत्यंत दुखी और क्षोभित होकर कष्ट पाते हैं। जब उनकी किसी देवी का मरण होता है, तब इष्टवियोग का दु:ख होता है। जब अपना मरण काल आता है, तब वियोग का बड़ा दु:ख होता है. देवों को सबसे अधिक कष्ट मानसिक तृष्णा का होता है। अधिक भोग करते हुए भी उनकी इच्छा बहुत बढ़ जाती है। तिर्यंच और मनुष्य कुछ दान, पूजा, परोपकार आदि शुभ भावो को भाकर पुण्यबंध करके देव होते है; परन्तु मिथ्यादर्शन के होने से वे अत्यंत ही पीड़ित रहकर मानसिक कष्ट में ही जीवन बिताते हैं।
देखो भाई, शरीर को ही अपना जानना और मानना, इन्द्रिय सुख को ही सच्चा सुख समझना, अपनी आत्मा के अतीन्द्रिय सुख पर विश्वास न होना ही मिथ्यादर्शन कहलाता है और यह भी सच है कि मिथ्याद्रष्टि जीव हर जगह यहाँ तक कि देव गति में भी दु:खी ही रहता है, क्योकि वह इच्छा की दाह की आग से सदाकाल पूरी उम्र भर व्याकुल और पीड़ित ही रहता है।
इसीलिये देव गति में मनुष्य गति से भी कई गुने ज्यादा दुःख होते हैं. फिर भी कई लोग मनुष्य गति में रहते हुए देव गति की इच्छा करते हैं, जो कि बड़ा आश्चर्यजनक है।