जम्बुद्वीप का भरत क्षेत्र और इस अवसर्पिणी काल के 20वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी के समय की बात है एक बड़ा सेठ था, जिसका नाम था “कार्तिक सेठ” उसके यहाँ 1008 मुनीम काम करते थे | एक बार वहां के राजा के गुरु शहर में आये | नगर के सभी लोग राजा के गुरु के दर्शन के लिए गए | लेकिन कार्तिक सेठ नहीं गए क्योंकि वह शुद्ध देव-गुरु-धर्म के प्रति अनन्य आस्थाशील थे |
कार्तिक सेठ के किसी शत्रु ने गुरु के कान भर दिए कि कार्तिक सेठ ने आपके दर्शन नहीं किये | उन्हें अपने धर्म पर गर्व है, वह अन्य धर्म के साधुओं के आगे कभी झुकने को तैयार नहीं है | गुरु ने राजा को कहा यदि कार्तिक सेठ की पीठ पर थाल रखकर भोजन कराओ, तभी मैं भोजन करूँगा अन्यथा नहीं | राजा ने सारी बात कार्तिक सेठ को बताई | कार्तिक सेठ मना नहीं कर सके | दुसरे दिन कार्तिक सेठ को उसी ढंग से बिठाया गया ताकि थाल आसानी से उसकी पीठ पर रखा जा सके | गर्म-गर्म खीर से भरकर थाल सेठ की पीठ पर रखा गया | सेठ की पीठ जल रही थी, गुरु का अहं पूरा हो रहा था |
खैर.. सेठ वापस घर आये | चिंतन किया कि राजा का अनुचित आदेश भी मानना पड़ता है और विचार करके सब कुछ त्याग कर मुनि बन गये | संयम और तप के प्रभाव से प्रथम स्वर्ग के इन्द्र (शक्रेन्द्र) बने | उधर वह साधू भी शक्रेन्द्र के आज्ञाधीन ऐरावत हाथी के रूप में पैदा हुआ | अवधिज्ञान से जब हाथी ने अपना पूर्व-भव देखा,तब उसे ज्ञात हुआ कि पूर्व-भव में मैं साधू था और यह सेठ था, फिर क्या था वैर फिर जाग उठा |
ऐरावत हाथी ने अपने 2 रूप बनाए, इन्द्र ने यह देखकर एक पर अपना दण्ड रखा और दुसरे पर स्वयं बैठ गया | हाथी रूप बनाते गया और इन्द्र कुछना कुछ रखते गए | फिर शक्रेन्द्र महाराज ने भी अपने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर पता लगाया कि यह मेरे पूर्व जन्म का वैरी साधू है | तब इन्द्र ने अपने वज्र का प्रहार किया |वज्र के लगते ही हाथी ने अपने सारे रूपों का संवरण कर लिया और पूर्णतः अधीन बन गया |
तब से अब तक शक्रेन्द्र महाराज जब तीर्थंकरों के कल्याण-उत्सवों में आते हैं, तब ऐरावत हाथी पर सवार होकर आते हैं | – भगवती सूत्र वृत्ति १८/२ से