वैशाली की राज्य-परम्परा में ‘चन्द्रावतंस’ एक पराक्रमी राजा हो गया है । वह कर्मवीर ही नहीं, धर्मवीर भी था । राज्य-कार्यो में संलग्न रहते हुए भी अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को उपवास करता, पौषधव्रत करता और कायोत्सर्ग मुद्रा में दण्डायमान खड़ा होकर सुदीधध्यान – साधना भी करता रहता । जल में कमल की तरह उनका जीवन संसार में रहते हुए भी निर्लिप्त था, निविंकार था ।
एक दिन अमावस्या की अन्धकारमय रात्रि में राजा ‘चन्द्रावतंस’ राज-महल में ध्यान – मुद्रा लगाये खड़ा था । अंधकार में महाराज की साधना में कोई विघ्न न हो, इसके लिए दासी ने आ कर दीपक जला दिया, चारों और प्रकाश फ़ैल गया ।
‘चन्द्रावतंस’ की द्रष्टि दीपक की लों पर टिक गई । उधर बाहर में भौतिक दीप की प्रकाश – रश्मियाँ जगर-मगर हो रही थीं, तो इधर अन्दर में ध्यान-दीप को आध्यत्मिक प्रकाश – रश्मियाँ जगमगाने लगी । भाव धारा आगे, और आगे बढ़ने लगी । राजा ने मन में अभिग्रह रूप संकल्प किया – “ जब तक यह दीपक जलता रहेगा, में अपना ध्यान चालू रखूँगा । ”
दो घडी बीत गई, चार घडी गुजर गई । दीपक टीम-टिमाने लगा, बुझने की स्थति में आया । स्वामी – भक्त दासी ने देखा, तो सोचा की दीपक गुल न हो जाए, महाराज ध्यान किए खड़े है ? वह आई और तेल डाल गई । लों फिर तेज हो उठी । महाराज के अंतरमय में भी ध्यान की लों तीव्र हो गई । बाहर के दीपक के साथ – साथ राजा के मन का अन्तर – दीपक भी जलाता रहा, प्रकाश तीव्र से तीव्रतर होता रहा ।
एक प्रहर रात्रि बीत गई । दासी ने सोचा – “ आज महाराज का ध्यान बहुत लम्बा चल रहा है, अत: कहीं अँधेरा न हो जाए! ” दीपक तेल समाप्त होने से पहले ही पुन: तेल डाल दिया ।
राजा का ध्यान लम्बा होता चला गया । दासी स्वामी-भक्ति पर राजा प्रसन्न था की ” यह आज सच्ची भक्ति कर रही है मेरे ध्यान की अखण्ड लौ को बुझाने नही देना चाहती, धन्य है इसकी स्वामी-भक्ति को। ”
रात बिताती गई, दीपक जलता रहा । जब जब दीपक टिमटिमाने लगता, दासी हाथ में तेल-पात्र लिए तैयार रहती, दीपक में तेल उंड़ेल देती । यों रात भर तेल डालता रहा, दीपक जलता रहा । राजा की अंतरचेतना प्रबुद्ध हो गई । आत्मा का अखण्ड नंदादीप भी जलता रहा । राजा ध्यान मे लीं होकर उच्च-उच्चतर भाव – श्रेणी में चढ़ता गया । ज्ञान – चेतना का दिव्य प्रकाश जगमगाता रहा ।
दोनो ओर संकल्प की होड़ लगी थी । दासी ने जुंभाइयां लेते हुए भी बाहर का दीपक बुझाने नहीं दिया । राजा का सुकुमार शरीर खड़े – खड़े अकड़ गया था, रोम-रोम दुखने लगा गया था, पर उसके ध्यान का तार टूटने न पाया । भीतर का दीपक जो जला, तो फिर बुझा ही नहीं ।
प्रात:काल का स्वर्णिम प्रकाश धरती पर बिखरा । दासी ने दीपक को गुल किया । पर, राजा का अंतर-दीपक एक बार जो जल उठा, वह कैसे गुल होता ? वह तो जलता रहा । खड़े – खड़े पाँव सूज गए, रक्त-संचार क्षीण होने से शारी शून्य हो गया ओर अंतत: ध्यान मे तल्लिन राजा को देह भूमि पर मूर्छित होकर गिर पड़ी । मृत्यु क्षण की मुर्छा में भी उनका अंतर-दीप नही बुझा, सो नहीं बुझा । शरीर छूट गया, पर वह अखण्ड ज्योति तो जलती ही रही वह दीप, जो एक बार जला था, जलता ही रहा ।