यदि आप नियमित रूप से जिनमंदिर जाते है तो कुछ सामान्य शुद्धि संबधी बातो को ध्यान रख कर आप आशातना करने से बच सकते है और अधिक पुन्य का उपार्जन कर सकते है जानिए कौन-कौन सी शुद्धि का ध्यान मंदिर जाते समय रखना चाहिए। जिन मंदिरजी में दर्शन एवं पूजन के समय क्या करें ?
अंग शुद्धि : मानव देह अशुचि का घर है । शरीर के 9 द्वारो में से सतत अशुचि का प्रवाह बहता रहता है । अत: तारक परमात्मा कीं पूजा के लिए जाना हो तब स्नान आदि से अंगशुद्धि करना आनिवार्य है।
वस्त्र शुद्धि : परमात्मा के दर्शन-पूजन में वस्त्रो कीं शुद्धि भी अनिवार्य है। लोक-व्यवहार में भी किसी श्रेष्ठी, पदाधिकारी या सत्ताधिकारी से मिलना हो तो व्यक्ति अशुद्ध मलिन वस्त्रो को छोड़कर स्वच्छ व समुचित वस्त्रो का परिधान करता है, तो फिर तारक परमात्मा के जिनालय में वस्त्रों की अशुद्धि कहाँ तक उचित है ? वस्त्र केवल स्वच्छ ही नहीं चाहिए, बल्कि मर्यादानुसार भी होने चाहिए । उभ्दट वेष स्व-पर उभय के लिए हानिकारक बनता है। शास्त्र में पुरुष के लिए पूजा में दो वस्त्र (धोती और खेश) तथा स्त्री के लिए तीन वस्त्र का जो विधान है, उसका समुचित पालन होना चाहिए। वस्त्र सम्बंधित आवश्यक जानकारियां के लिए यह पोस्ट पढ़े
मन शुद्धि : परमात्मा के दर्शन-पूजन हेतु प्रयाण-समय मन को शुभ भावनाओं से भावित करना चाहिए। मन में किसी प्रकार की मलिन भावनाएँ नहीं होनी चाहिए । क्योंकी मलिन भाव से पूजक, पूजा के फल को खो देता है।
भूमि शुद्धि : परमात्मा के मंदिर में पूजा आदि करने के लिए मंदिर की भूमिशुद्धि कर लेना अनिवार्य है। पूजा के उपकरण आदि जहाँ रखने हो, वहाँ किसी भी प्रकार की गंदगी नहीं होनी चाहिए। नूतन जिन मंदिर के निर्माण में भी भूमि-शुद्धि का विशेष ख्याल रखना चाहिए।
उपकरण शुद्धि : परमात्मा की पूजा में उपयोगी जितने भी उपकरण हों वे स्वर्ण, चांदी आदि उत्तम व शुद्ध धातु से निर्मित होने चाहिए। शुद्ध द्रव्य भी शुभ भावो की उत्पत्ति में कारण बनता है। केसर, चंदन, बरास, अगरबत्ती, घी, वस्त्र आदि भी उत्तम व शुद्ध होने चाहिए।
द्रव्य शुद्धि : परमात्मा की पूजा आदि सामग्री में व्यय होने वाला द्रव्य शुद्ध होना चाहिए अर्थात् न्याय ओर नीति से अर्जित होना चाहिए। न्याययुक्त धन का प्रभु-भक्ति में उपयोग करने से भावोल्लास बढ़ता है और इससे चित्त भी प्रसन्न बनत्ता है।
विधि शुद्धि : जिंन-मंदिर में प्रवेश से लेकर बाहर निर्गमन तक जो भी शास्रीय विधि है, उसका यथोचित पालन होना चाहिए। विधि में जितनी स्खलनाएँ होती हैं, उतनी ही आशातनाएँ होती है, अत: विधि पालन में तत्परता और अविधि आचरण का खेद अवश्य होना चाहिए।