“ऐसी दशा हो भगवन जब प्राण तन से निकले…” यह स्तवन तो सुना ही होगा ! पर कभी विचार किया है की जीवन के अंतिम समय में भगवन की भक्ति और धार्मिक प्रवत्ति अनिवार्य क्यों बताई जाती है ?
आज आपको बताते हैं की जो आज हमारे मित्र और शत्रु हैं दरअसल उनका और हमारा शायद पूर्व भव का भी कुछ सम्बन्ध है –
सम्यक्त्त्व की प्राप्ति के पहले के भव में श्री पार्श्वनाथ भगवान का “जीव” मरते समय अर्थात जीवन के “अंतिम समय” में अपने भाई के प्रति क्रोध को नहीं रोक पाया, उसी भाई ने आगे आने वाले 9 भवों तक उनके साथ बैर नहीं छोड़ा और तो और अपने अंतिम भव के अंतिम समय में भी “कमठ” बनकर भी पीछे लगा रहा |
ज्ञानी पुरुषों ने बताया है की आने वाले भव (Next Birth) का “आयुष्य बंध” इस जीवन के “हर तीसरे भाग” में हो सकता है वो भी विशेषत: “पर्व तिथियों” पर इसीलिए पर्व तिथियाँ जैसे आठम, चौदस, पांचम आदि पर अधिक धर्म करने का कहा जाता है |
अब अगर माना जाए कि कुल उम्र 75 वर्ष की है तो 25, 50 या 75 वर्ष में आयुष्य बंध होता है और यदि ऐसा नहीं भी होता है तो जीवन के “अंतिम समय” में अगले भव का आयुष्य-बंध होता है |
इसीलिए “जीवन” के “अंतिम समय” में “धर्म-आराधना” या “धर्म श्रवण” बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है | चूँकि “जीवन” का ठिकाना नहीं और हमें ये पता नहीं कि हमारे जीवन का “तीसरा” भाग कौनसा है. इसलिए रोज कुछ तो धर्म-क्रिया या कम से कम “धर्म श्रवण” करना चाहिए |
कई उदहारण है हमारे जैन इतिहास में –
- मन में “शत्रुंजय और दादा” के दर्शन की तीव्र आस को लेकर निकले “मानकचंद सेठ”, मगरवाडा के जंगल में डाकू द्वारा हमला होने पर भी अंतिम समय में भी धर्मं भावना डीग ना सकी और मरकर देवलोक में “मणिभद्र” नाम के देवेन्द्र हुए और फिर अधिष्टायक देव कहलाये |
- जलते हुए नाग नागिन को अंतिम समय में “नवकार” मिला, सम्यक्त्व की भावना से मरकर देव लोक में देव देवी हुए और “पद्मावती धरणन्द्र” देव बने !