जैन धर्म के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है । आत्मा ज्ञानमय है, ज्ञानस्वरुप है । ज्ञान एवं ज्ञानी भिन्न भी माने गये हैं, अभिन्न भी माने गये हैं। यह ज्ञान मुख्यतया पाँच विभागों में बंटा हुआ है ।
1) मतिज्ञान – मन एवं इंद्रियों के द्वारा होनेवाला अर्थ का ज्ञान ।
”ॐ ह्रिॅ श्रीॅ मतिज्ञानाय नमो नम:”
समकित श्रद्धावंतने, उपन्यो ज्ञान प्रकाश ।
प्रणमु पदकज तेहना, भाव धरी उल्लास ।।
2) श्रुतज्ञान – मन एवं इंद्रियों के द्वारा हुए अर्थज्ञान का वाच्यार्थ ज्ञान, यानी पहले के ज्ञान की विशद व्याख्या/ अर्थ कहने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है । शास्त्र , ग्रंथ, शब्द, अक्षरों के द्वारा प्राप्त होने वाले ज्ञान भी श्रुतज्ञान में समाविष्ट हैं।
” ॐ ह्रिॅ श्रीॅ श्रृतज्ञानाय नमो नम: ”
पवयण श्रुत सिध्धांतने, आगम समय वखाण ।
पुजो बहुविध रागथी, चरण कमल चित्त आण ।।
3) अवधिज्ञान – मन एवं इंद्रियों की सहाय के बगैर आत्मा-शक्ति से अमुक नियत मर्यादा- सीमा तक के मूर्त पदार्थों की जानकारी देनेवाला ज्ञान।
” ॐ ह्रिॅ श्रीॅ अवधिज्ञानाय नमो नम: ”
उपन्यो अवधिज्ञाननो, गुण जेहने अविकार ।
वंदना तेहने माहरी, श्वास मांहे सो वार ।।
4) मन:पर्यवज्ञान – मन एवं इन्दियों के अवलंबन बिना ही आत्मशक्ति से अमुक सीमित मर्यादा में जीवात्मा के मन के विविध भावों को जानना उसका नाम है मन:पर्यवज्ञान।
” ॐ ह्रिॅ श्रीॅ मन:पर्यवज्ञानाय नमो नम: ”
ए गुण जेहने उपन्यो, सर्व विरति गुणखाण ।
प्रणमुं हितथी तेहना, चरण कमल चित्त आण ।।
5) कैवल्यज्ञान– एकदम शुद्ध, संपूर्ण एवं अनंत ज्ञान ! इस पर कोई आवरण नहीं होता । मन एवं इंद्रियों की सहाय के बगैर तीनों लोक के तमाम मूर्त-अमूर्त पदार्थों को एवं मनोभावों को यथावत् जाननेवाला ज्ञान। ऐसे ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म जब संपूर्णतया नष्ट हो जाता है तब या ज्ञान प्रकट होता है।
” ॐ ह्रिॅ श्रीॅ केवलज्ञानाय नमो नम: ”
केवल दंसण नाणनो, चिदानंद घन तेज ।
ज्ञान पंचमी दिन पूजीये, विजय लक्ष्मी शुभ हेज ।।