प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव परमात्मा को दीक्षा अंगीकार करने के बाद लाभांतराय कर्म का उदय होने से 400 दिन तक उन्हें निर्दोष भिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई थी और इस कारण उन्होंने दीक्षा दिन से 400 निर्जल उपवास किये थे | उस तप की स्मृति में यह वर्षीतप (संवत्सर तप) किया जाता है | ऋषभदेव भगवान ने तो 400 उपवास एक साथ किये थे, परन्तु वर्तमान में संघयण बल का अभाव होने से 400 उपवास एक साथ संभव नहीं है | प्रभु महावीर के शासन में उत्कृष्ट तप १८० उपवास ही बतलाया है, इससे अधिक तप का निषेध है अतः एकांतर उपवास कर 400 दिन में इस तप की समाप्ति की जाती है |
इस तप का आरम्भ चेत्र कृष्ण सप्तमी (गुजराती) फाल्गुन कृष्णा सप्तमी से किया जाता है | इस तप का आरम्भ छठ से होता है फिर 400 दिनों तक अर्थात १३ महीने और ११ दिवस एकांतर उपवास और पारणे में कम से कम बीयासना किया जाता है | इस तप के दरमियाँ एक साथ २ दिन नहीं खाया जाता है |
वर्षीतप की विधि
- उपवास + बियासणा
- चौदस को वापरना नहीं
- 2 बियासणा साथ में नही करना
- उपवास के दिन में
देववंदन, प्रभुपूजा
12 साथिया – फल + नैवेध
12 लोगस्स का कायोत्सर्ग
- 20 माला “श्री ऋषभदेवनाथाय नम”
- सुबह शाम प्रतिक्रमण